हर-सुबह इसी उम्मीद से
उठती हूँ कि कभी न कभी
इक न इक दिन वो सुबह भी
जरूर आएगी जब तुम मेरा
हाँथ अपने हाँथों में थामकर
उठती हूँ कि कभी न कभी
इक न इक दिन वो सुबह भी
जरूर आएगी जब तुम मेरा
हाँथ अपने हाँथों में थामकर
मुझे इन खामोशियों के अंधेरों
से खींच कर उन राहों में
ले जाओगे जहाँ उजाले
खुली बाहों से मेरा
इस्तक़बाल करेंगे ...........
सालिहा मंसूरी -
20.08.15 9;48
pm
1 comments:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 01 नवम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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