तुम आओगे इक रोज
मेरी पलकों की मुंडेर पर
कि मैंने तारों से तुम्हारे लिए
ये पयाम भेजा है
फिर न रुकेगा ये
ख्वाबों का गुलिस्तां
कि मैंने फूलों से तुम्हारे लिए
ये सलाम भेजा है
फिर न रहेंगी ये दूरियां भी
हमारे दरमियाँ
कि मैंने तन्हाईयों से तुम्हारे लिए
ये कलाम भेजा है -------
सालिहा मंसूरी
1 comments:
अच्छा लिख रही हो सालिहा, उम्र और अनुभव के इज़ाफ़े के साथ यह निश्चित रूप से दिन-बा-दिन बेहतर होगा।
कोशिश करो कि उस तबके की भी बात करो जिसके पास जुबान नहीं या जो कमज़ोर है।
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